Tulsidas Poems in Hindi | तुलसीदास की कविता

tulsi ke dohe 10th hindi poem:- भारत में कई विद्वान काव्य लेखकों ने जन्म लेने के बाद कई प्रसिद्ध रचनाए की जिसे पूरी दुनिया के साथ- साथ भारत में सम्मान प्राप्त किए। श्री रामचरित मानस भी एक प्रमुख रचना है जिसे हिन्दू धर्म के लोग श्रद्धा से अध्ययन करते एवं इस पुस्तक को भगवान् राम समझ के पूजा करते है। श्री रामचरित मानस को साहित्य में अंतरिक्ष के तारे कहे जाने वाले तुलसीदास जिन्हे हम "गोस्वामी तुलसीदास" जी के नाम से जानते हैं उन्होंने ने ही इस महान पुस्तक को लिखा है।


तुलसीदास जी का जन्म कब हुआ ये कोई नहीं जानता परन्तु कई बुद्धिजीवी लोगो ने अलग अलग तारीख बताते है,तुलसीदास जी के जीवन परिचय की बात करे तो ये जन्म के समय इनका शारीरिक रूप किसी पांच वर्ष के बच्चे के समान था जिसके कारण इनके पिता "आत्माराम दुबे" और माता "हुलसी" ने इनको राक्षस समझ कर अपनी दासी को पालन पोषण के लिए दे दिया।


गोस्वामी तुलसीदास जी की कविता | Goswami Tulsidas Poems in Hindi


श्री रामचँद्र कृपालु भजु मन -तुलसीदास 

श्री रामचँद्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणम्।
 नवकंज-लोचन, कंज-मुख, कर कंज, पद कंजारुणम्।।

 कंदर्प अगणित अमित छबि, नवनील-नीरद सुंदरम्।
 पट पीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक-सुतानरम्।।

 भजु दीनबंधु दिनेश दानव-दैत्य-वंश-निकंदनम्।
 रघुनंद आनँदकंद कोशलचंद दशरथ-नंदनम्।।

 सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणम्।
 आजानुभुज शर-चाप-धर, संग्राम-जित-खर-दूषणम्।।

 इति वदति तुलसीदास शंकर-शेष-मुनि-मन रंजनम्।
 मम् हृदय-कंज-निवास कुरु, कामादि खल-दल-गंजनम्।।

बिनती भरत करत कर जोरे -तुलसीदास 

बिनती भरत करत कर जोरे।
 दिनबन्धु दीनता दीनकी कबहुँ परै जनि भोरे॥१॥
 तुम्हसे तुम्हहिं नाथ मोको, मोसे, जन तुम्हहि बहुतेरे।
 इहै जानि पहिचानि प्रीति छमिये अघ औगुन मेरे॥२॥
 यों कहि सीय-राम-पाँयन परि लखन लाइ उर लीन्हें।
 पुलक सरीर नीर भरि लोचन कहत प्रेम पन कीन्हें॥३॥
 तुलसी बीते अवधि प्रथम दिन जो रघुबीर न ऐहौ।
 तो प्रभु-चरन-सरोज-सपथ जीवत परिजनहि न पैहौ॥४॥

तुलसीदास की लिखी कविता | Tulsidas Small Poems in Hindi


देव! दूसरो कौन दीनको दयालु -तुलसीदास 

देव! दूसरो कौन दीनको दयालु।
 सीलनिधान सुजान-सिरोमनि,
सरनागत-प्रिय प्रनत-पालु॥१॥

 को समरथ सर्बग्य सकल प्रभु,
सिव-सनेह मानस-मरालु।
 को साहिब किये मीत प्रीतिबस,
खग निसिचर कपि भील-भालु॥२॥

 नाथ, हाथ माया-प्रपंच सब,
जीव-दोष-गुन-करम-कालु।
 तुलसीदास भलो पोच रावरो,
नेकु निरखि कीजिये निहालु॥३॥

तऊ न मेरे अघ अवगुन गनिहैं -तुलसीदास 

तऊ न मेरे अघ अवगुन गनिहैं।
 जौ जमराज काज सब परिहरि इहै ख्याल उर अनिहैं॥१॥

 चलिहैं छूटि, पुंज पापिनके असमंजस जिय जनिहैं।
 देखि खलल अधिकार प्रभूसों, मेरी भूरि भलाई भनिहैं॥२॥

 हँसि करिहैं परतीत भक्तकी भक्त सिरोमनि मनिहैं।
 ज्यों त्यों तुलसीदास कोसलपति, अपनायहि पर बनिहैं॥३॥

Tulsidas Poems in Hindi Wikipedia | Tulsidas in Hindi Wikipedia


धनुर्धर राम -तुलसीदास 

सुभग सरासन सायक जोरे॥
 खेलत राम फिरत मृगया बन,
 बसति सो मृदु मूरति मन मोरे॥

 पीत बसन कटि, चारू चारि सर,
चलत कोटि नट सो तृन तोरे।
 स्यामल तनु स्रम-कन राजत ज्यौं,
 नव घन सुधा सरोवर खोरे॥

 ललित कंठ, बर भुज, बिसाल उर,
 लेहि कंठ रेखैं चित चोरे॥
 अवलोकत मुख देत परम सुख,
 लेत सरद-ससि की छबि छोरे॥

जटा मुकुट सिर सारस-नयनि, 
गौहैं तकत सुभोह सकोरे॥
सोभा अमित समाति न कानन, 
उमगि चली चहुँ दिसि मिति फोरे॥

चितवन चकित कुरंग कुरंगिनी,
 सब भए मगन मदन के भोरे॥
तुलसीदास प्रभु बान न मोचत, 
सहज सुभाय प्रेमबस थोरे॥

तुलसीदास कविता निराला | तुलसीदास किसकी कविता है?


भारत के नभ के प्रभापूर्य
शीतलाच्छाय सांस्कृतिक सूर्य
अस्तमित आज रे-तमस्तूर्य दिङ्मण्डल;
उर के आसन पर शिरस्त्राण
शासन करते हैं मुसलमान;
है ऊर्मिल जल, निश्चलत्प्राण पर शतदल।[1]


शत-शत शब्दों का सांध्य काल
यह आकुंचित भ्रू कुटिल-भाल
छाया अंबर पर जलद-जाल ज्यों दुस्तर;
आया पहले पंजाब प्रान्त,
कोशल-बिहार तदनन्त क्रांत,
क्रमशः प्रदेश सब हुए भ्रान्त, घिर-घिरकर।[2

मोगल-दल बल के जलद-यान,
दर्पित-पद उन्मद पठान
बहा रहे दिग्देशज्ञान, शर-खरतर,
छाया ऊपर घन-अन्धकार--
टूटता वज्र यह दुर्निवार,
नीचे प्लावन की प्रलय-धार, ध्वनि हर-हर।[3]


रिपु के समक्ष जो था प्रचण्ड
आतप ज्यों तम पर करोद्दण्ड;
निश्चल अब वही बुँदेलखण्ड, आभा गत,
निःशेष सुरभि, कुरबक-समान
संलग्न वृन्त पर, चिन्त्य प्राण,
बीता उत्सव ज्यों, चिन्ह म्लान छाया श्लथ[4]

रों का गढ़, वह कालिंजर,
सिंहों के लिए आज पिंजर
नर हैं भीतर बाहर किन्नर-गण गाते
पीकर ज्यों प्राणों का आसव
देखा असुरों ने दैहिक दव,
बन्धन में फँस आत्मा-बांधव दुख पाते।[5]


लड़-लड जो रण बाँकुरे, समर,
हो शायित देश की पृथ्वी पर,
अक्षर, निर्जर, दुर्धर्ष, अमर, जगतारण
भारत के उर के राजपूत,
उड़ गये आज वे देवदूत,
जो रहे शेष, नृपवेश सुत-बन्दीगण।[6]


यों मगल-पद-तल प्रथम तूर्ण
सम्बद्ध देश-बल चूर्ण-चूर्ण
इसलाम कलाओं से प्रपूर्ण जन-जनपद
संचित जीवन की क्षिप्रधार,
इसलाम - सागराभिमुख पार,
बहती नदियाँ, नद जन-जन हार वंशवद।[7]

अब धौत धरा खिल गया गगन,
उर-उर को मधुर तापप्रशमन
बहती समीर, चिर-आलिंगन ज्यों उन्मन।
झरते हैं शशधर से क्षण-क्षण
पृथ्वी के अधरों पर निःश्वन
ज्योतिर्मय प्राणों के चुम्बन, संजीवन[8]


भूला दुख, अब सुख-स्वरित जाल
फैला-यह केवल-कल्प काल--
कामिनी-कुमुद-कर-कलित ताल पर चलता
प्राणों की छबि मृदु-मन्द-स्पन्द,
लघु-गति, नियमित-पद, ललित छन्द
होगा कोई, जो निरानन्द, कर मलता।[9]


सोचता कहाँ रे, किधर कूल
कहता तरंग का प्रमुद फूल
यों इस प्रवाह में देश मूल खो बहता
छल-छल-छल कहता यद्यपि जल,
वह मन्त्र मुग्ध सुनता कल-कल
निष्क्रिय शोभा-प्रिय कूलोपल ज्यों रहता।[10]


पड़ते हैं जो दिल्ली-पथ पर
यमुना के तट के श्रेष्ठ नगर,
वे हैं समृद्धि की दूर-प्रसर माया में;
यह एक उन्ही में राजापुर,
है पूर्ण, कुशल, व्यवसाय-प्रचुर,
ज्योतिश्चुम्बिनी कलश-मधु-उर छाया में।[11]


युवकों में प्रमुख रत्न-चेतन
समधीत - शास्त्र - काव्यालोचन
जो, तुलसीदास, वही ब्राह्मण-कुल-दीपक;
आयत-दृग, पुष्ट देह, गत-भय,
अपने प्रकाश में निःसंशय
प्रतिभा का मन्द-स्मित परिचय, संस्मारक;[12]


नीली उस यमुना के तट पर
राजापुर का नागरिक मुखर
क्रीड़ितवय-विद्याध्ययनान्तर है संस्थित;
प्रियजन को जीवन चारु, चपल
जल की शोभा का-सा उत्पल,
सौरभोत्कलित अम्बर-तल, स्थल-स्थल, दिक-दिक।[13]


एक दिन सखागण संग, पास,
चल चित्रकूटगिरी, सहोच्छवास,
देखा पावन वन, नव प्रकाश मन आया;
वह भाषा-छिपती छवि सुन्दर
कुछ खुलती आभा में रँगकर,
वह भाव कुरल-कुहरे-सा भरकर भाया।[14]


केवल विस्मित मन चिन्त्य नयन;
परिचित कुछ, भूला ज्यों प्रियजन-
ज्यों दूर दृष्टि की धूमिल-तन तट-रेखा,
हो मध्य तरंगाकुल सागर,
निःशब्द स्वप्नसंस्कारागर;
जल में अस्फुट छवि छायाधर, यों देकंजकल

तरु-तरु वीरुध्-वीरुध् तृण-तृण
जाने क्या हँसते मसृण-मसृण,
जैसे प्राणों से हुए उऋण, कुछ लखकर;
भर लेने को उर में, अथाह,
बाहों में फैलाया उछाह;
गिनते थे दिन, अब सफल-चाह पल रखकर।[16]


कहता प्रति जड़ "जंगम-जीवन!
भूले थे अब तक बन्धु, प्रमन?
यह हताश्वास मन भार श्वास भर बहता;
तुम रहे छोड़ गृह मेरे कवि,
देखो यह धूलि-धूसरित छवि,
छाया इस पर केवल जड़ रवि खर दहता।"[17]


"हनती आँखों की ज्वाला चल,
पाषाण-खण्ड रहता जल-जल,
ऋतु सभी प्रबलतर बदल-बदलकर आते;
वर्षा में पंक-प्रवाहित सरि,
है शीर्ण-काय-कारण हिम अरि;
केवल दुख देकर उदरम्भरि जन जाते।"[18]


"फिर असुरों से होती क्षण-क्षण
स्मृति की पृथ्वी यह, दलित-चरण;
वे सुप्त भाव, गुप्ताभूषण अब हैं सब
इस जग के मग के मुक्त-प्राण!
गाओ-विहंग! -सद्ध्वनित गान,
त्यागोज्जीवित, वह ऊर्ध्व ध्यान, धारा-स्तव।"[19]


"लो चढ़ा तार-लो चढ़ा तार,
पाषाण-खण्ड ये, करो हार,
दे स्पर्श अहल्योद्धार-सार उस जग का;
अन्यथा यहाँ क्या? अन्धकार,
बन्धुर पथ, पंकिल सरि, कगार,
झरने, झाड़ी, कंटक; विहार पशु-खग का![20]


"अब स्मर के शर-केशर से झर
रँगती रज-रज पृथ्वी, अम्बर;
छाया उससे प्रतिमानस-सर शोभाकर;
छिप रहे उसी से वे प्रियतमम
छवि के निश्छल देवता परम;
जागरणोपम यह सुप्ति-विरम भ्रम, भ्रम भर।"[21]


बहकर समीर ज्यों पुष्पाकुल
वन को कर जाती है व्याकुल,
हो गया चित्त कवि का त्यों तुलकर, उन्मन;
वह उस शाखा का वन-विहग
छोड़ता रंग पर रंग-रंग पर जीवन।[22]


दूर, दूरतर, दूरतम, शेष,
कर रहा पार मन नभोदेश,
सजता सुवेश, फिर-फिर सुवेश जीवन पर,
छोड़ता रंग फिर-फिर सँवार
उड़ती तरंग ऊपर अपार
संध्या ज्योति ज्यों सुविस्तार अम्बर तर।[23]


उस मानस उर्ध्व देश में भी
ज्यों राहु-ग्रस्त आभा रवि की
देखी कवि ने छवि छाया-सी, भरती-सी--
भारत का सम्यक देशकाल;
खिंचता जैसे तम-शेष जाल,
खींचती, बृहत से अन्तराल करती-सी।[24]


बँध भिन्न-भिन्न भावों के दल
क्षुद्र से क्षुद्रतर, हुए विकल;
पूजा में भी प्रतिरोध-अनल है जलता;
हो रहा भस्म अपना जीवन,
चेतना-हीन फिर भी चेतन;
अपने ही मन को यों प्रति मन है छलता।[25]

Tulsidas Poems in Hindi Class 10 |
‌Tulsidas Ki kavitavali

अवधेस के द्वारे सकारे गई सुत गोद में भूपति लै निकसे।
अवलोकि हौं सोच बिमोचन को ठगि-सी रही, जे न ठगे धिक-से॥
‘तुलसी’ मन-रंजन रंजित-अंजन नैन सुखंजन जातक-से।
सजनी ससि में समसील उभै नवनील सरोरुह-से बिकसे॥

तन की दुति श्याम सरोरुह लोचन कंज की मंजुलताई हरैं।
अति सुंदर सोहत धूरि भरे छबि भूरि अनंग की दूरि धरैं॥
दमकैं दँतियाँ दुति दामिनि ज्यों किलकैं कल बाल बिनोद करैं।
अवधेस के बालक चारि सदा ‘तुलसी’ मन मंदिर में बिहरैं॥

सीस जटा, उर बाहु बिसाल, बिलोचन लाल, तिरीछी सी भौंहैं।
तून सरासन-बान धरें तुलसी बन मारग में सुठि सोहैं॥
सादर बारहिं बार सुभायँ, चितै तुम्ह त्यों हमरो मनु मोहैं।
पूँछति ग्राम बधु सिय सों, कहो साँवरे-से सखि रावरे को हैं॥

सुनि सुंदर बैन सुधारस-साने, सयानी हैं जानकी जानी भली।
तिरछै करि नैन, दे सैन, तिन्हैं, समुझाइ कछु मुसुकाइ चली॥
‘तुलसी’ तेहि औसर सोहैं सबै, अवलोकति लोचन लाहू अली।
अनुराग तड़ाग में भानु उदै, बिगसीं मनो मंजुल कंजकली

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